भगत कबीर दास जी के दोहे
- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोए। जो मन खोजा अपना, तो मुझसे बुरा न कोए।
- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
- दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करें न कोय। जो सुख में सुमिरन करें, तो दुख काहे को होय।
- कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और। हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं कोय।
- साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाए। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए।
- जैसे कुंभकरण सोवत है, देखि प्रयास जोड़ि। तैसे ही घर सुत मन बसत है, राम की कृपा बिना बिना।
- कबीरा ते संसार नहीं, आपरा आप भांति। कहत कबीर ये सब के, विचरत भगत नहीं।
- सतगुरु की संगति सब को, करता भला होय। मन के कुंडलिनी छुए, गुरु की यही सोय।
- बालक के काम बिगड़े, जब गुरु की जान। गुरु बिन गति नहीं कोई, जानत सब आप जान।
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय।
यह कुछ भगत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे हैं। उनके दोहों में जीवन के मूल्यों, साधना की महत्वपूर्णता, और भक्ति के सिद्धांतों का विवेक प्रकट होता है।
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